संक्षिप्त भविष्य पुराण by समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब〰️〰️🌸🌸🌸〰️〰️★उत्तरपर्व (चतुर्थ खण्ड)★ (एकसौ चौतीसवां दिन) ॐ श्री परमात्मने नमः श्री गणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय सावित्ति व्रत कथा एवं व्रत विधि...(भाग 1)〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️राजा युधिष्ठिर ने कहा - भगवन् ! अब आप सावित्री-व्रत के विधान का वर्णन करें।भगवान् श्रीकृष्ण बोले- महाराज ! सावित्री नाम की एक राजकन्या ने वन में जिस प्रकार यह व्रत किया था, स्त्रियों के कल्याणार्थ मैं उस व्रत का वर्णन कर रहा हूँ, उसे आप सुनें । प्राचीन काल में मद्रदेश (पंजाब)-में एक बड़ा पराक्रमी, सत्यवादी, क्षमाशील, जितेन्द्रिय और प्रजापालन में तत्पर अश्वपति नाम का राजा राज्य करता था, उसे कोई संतान न थी। इसलिये उसने सपत्नीक व्रत द्वारा सावित्री की आराधना की। कुछ काल के अनन्तर व्रत के प्रभाव से ब्रह्माजी की पत्नी सावित्री ने प्रसन्न हो राजा को वर दिया कि 'राजन्! तुम्हें (मेरे ही अंश से) एक कन्या उत्पन्न होगी।' इतना कहकर सावित्रीदेवी अन्तर्धान हो गयीं और कुछ दिन बाद राजा को एक दिव्य कन्या उत्पन्न हुई। वह सावित्रीदेवी के वर से प्राप्त हुई थी, इसलिये राजा ने उसका नाम सावित्री ही रखा। धीरे-धीरे वह विवाह के योग्य हो गयी। सावित्री ने भी भृगु के उपदेश से सावित्री व्रत किया।एक दिन वह व्रत के अनन्तर अपने पिता के पास गयी और प्रणाम कर वहाँ बैठ गयी। पिता ने सावित्री को विवाहयोग्य जानकर अमात्यों से उसके विवाह के विषय में मन्त्रणा की; पर उसके योग्य किसी श्रेष्ठ वर को न देखकर पिता अश्वपति ने सावित्री से कहा – 'पुत्रि ! तुम वृद्धजनों तथा अमात्यों के साथ जाकर स्वयं ही अपने अनुरूप कोई वर ढूँढ़ लो।' सावित्री भी पिता की आज्ञा स्वीकार कर मन्त्रियों के साथ चल पड़ी। स्वल्प काल में ही राजर्षियों के आश्रमों, सभी तीर्थों और तपोवनों में घूमती हुई तथा वृद्ध ऋषियों का अभिनन्दन करती हुई वह मन्त्रियों सहित पुनः अपने पिता के पास लौट आयी। सावित्री ने देखा कि राजसभा में देवर्षि नारद बैठे हुए हैं। सावित्री ने देवर्षि नारद और पिता को प्रणामकर अपना वृत्तान्त इस प्रकार बताया महाराज! शाल्वदेश में द्युमत्सेन नाम के एक धर्मात्मा राजा हैं। उनके सत्यवान् नामक पुत्र का मैंने वरण किया है।' सावित्री की बात सुनकर देवर्षि नारद कहने लगे—‘राजन्! इसने बाल्य-स्वभाववश उचित निर्णय नहीं लिया। यद्यपि द्युमत्सेन का पुत्र सभी गुणों से सम्पन्न है, परंतु उसमें एक बड़ा भारी दोष है कि आज के ही दिन ठीक एक वर्ष के बाद उसकी मृत्यु हो जायगी। देवर्षि नारद की सुनकर राजा ने सावित्री से किसी अन्य वर को ढूँढ़ने के लिये कहा।बाल वनिता महिला आश्रमजय श्रीरामक्रमश...शेष अगले अंक में〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️
संक्षिप्त भविष्य पुराण
by समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब
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★उत्तरपर्व (चतुर्थ खण्ड)★
(एकसौ चौतीसवां दिन)
ॐ श्री परमात्मने नमः
श्री गणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
सावित्ति व्रत कथा एवं व्रत विधि...(भाग 1)
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राजा युधिष्ठिर ने कहा - भगवन् ! अब आप सावित्री-व्रत के विधान का वर्णन करें।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- महाराज ! सावित्री नाम की एक राजकन्या ने वन में जिस प्रकार यह व्रत किया था, स्त्रियों के कल्याणार्थ मैं उस व्रत का वर्णन कर रहा हूँ, उसे आप सुनें । प्राचीन काल में मद्रदेश (पंजाब)-में एक बड़ा पराक्रमी, सत्यवादी, क्षमाशील, जितेन्द्रिय और प्रजापालन में तत्पर अश्वपति नाम का राजा राज्य करता था, उसे कोई संतान न थी। इसलिये उसने सपत्नीक व्रत द्वारा सावित्री की आराधना की। कुछ काल के अनन्तर व्रत के प्रभाव से ब्रह्माजी की पत्नी सावित्री ने प्रसन्न हो राजा को वर दिया कि 'राजन्! तुम्हें (मेरे ही अंश से) एक कन्या उत्पन्न होगी।' इतना कहकर सावित्रीदेवी अन्तर्धान हो गयीं और कुछ दिन बाद राजा को एक दिव्य कन्या उत्पन्न हुई। वह सावित्रीदेवी के वर से प्राप्त हुई थी, इसलिये राजा ने उसका नाम सावित्री ही रखा। धीरे-धीरे वह विवाह के योग्य हो गयी। सावित्री ने भी भृगु के उपदेश से सावित्री व्रत किया।
एक दिन वह व्रत के अनन्तर अपने पिता के पास गयी और प्रणाम कर वहाँ बैठ गयी। पिता ने सावित्री को विवाहयोग्य जानकर अमात्यों से उसके विवाह के विषय में मन्त्रणा की; पर उसके योग्य किसी श्रेष्ठ वर को न देखकर पिता अश्वपति ने सावित्री से कहा – 'पुत्रि ! तुम वृद्धजनों तथा अमात्यों के साथ जाकर स्वयं ही अपने अनुरूप कोई वर ढूँढ़ लो।' सावित्री भी पिता की आज्ञा स्वीकार कर मन्त्रियों के साथ चल पड़ी। स्वल्प काल में ही राजर्षियों के आश्रमों, सभी तीर्थों और तपोवनों में घूमती हुई तथा वृद्ध ऋषियों का अभिनन्दन करती हुई वह मन्त्रियों सहित पुनः अपने पिता के पास लौट आयी। सावित्री ने देखा कि राजसभा में देवर्षि नारद बैठे हुए हैं। सावित्री ने देवर्षि नारद और पिता को प्रणामकर अपना वृत्तान्त इस प्रकार बताया महाराज! शाल्वदेश में द्युमत्सेन नाम के एक धर्मात्मा राजा हैं। उनके सत्यवान् नामक पुत्र का मैंने वरण किया है।' सावित्री की बात सुनकर देवर्षि नारद कहने लगे—‘राजन्! इसने बाल्य-स्वभाववश उचित निर्णय नहीं लिया। यद्यपि द्युमत्सेन का पुत्र सभी गुणों से सम्पन्न है, परंतु उसमें एक बड़ा भारी दोष है कि आज के ही दिन ठीक एक वर्ष के बाद उसकी मृत्यु हो जायगी। देवर्षि नारद की सुनकर राजा ने सावित्री से किसी अन्य वर को ढूँढ़ने के लिये कहा।
जय श्रीराम
क्रमश...
शेष अगले अंक में
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