कुंडली द्वारा फलित कथन करते समय कुछ सामान्य नियमों की जानकारी होना भी आवश्यक है। उन्हीं के आधार पर ग्रहों के बलाबल का निर्णय लेकर सटीक कथन (फलादेश) किया जा सकता है। By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब- जो ग्रह शत्रु क्षेत्री, पापी अथवा अस्त हो, वे अशुभ फल प्रदान करते हैं। यदि पापी ग्रह स्वराशि के हों, उच्च हों या योगकारक ग्रह से संबंध करते हों, तो अशुभ नहीं होते।- जो भाव न तो किसी ग्रह द्वारा देखा जा रहा हो, न ही उसमें कोई ग्रह बैठा हो तो उस भाव का फल मध्यम मिलता है।- शुभ भावों के स्वामी ग्रह यदि मित्र क्षेत्री स्वग्रही, मूल त्रिकोणी या उच्च के हों तो भावों की वृद्धि करते हैं ।- जो भाव अपने स्वामी से युक्त अथवा दृष्ट होता है, उसकी वृद्धि होती है।- जो भाव किसी पापी ग्रह से युक्त या दृष्ट हो (6, 8, 12 को छोड़) उसकी हानि होती है।- कोई ग्रह कुंडली में उच्च का हो, मगर नवांश में नीच या पापी हो, तो वह लग्नेश होने पर भी शुभ फल नहीं देता ।- केंद्र व त्रिकोण के स्वामी शुभ होते हैं। इनका परस्परसंबंध योगकारक होता है। इनके संपर्क में आया अन्य ग्रह भी शुभफल प्रदान करता है।- यदि भावेश लग्न से केंद्र, त्रिकोण या लाभ में हो तो शुभ होता है।- यदि दुष्ट स्थान (6, 8, 12) का अधिपति ग्रह दूसरे दुष्ट स्थान में हो, तो शुभ फल देता है । कुंडली द्वारा फलित कथन करते समय कुछ सामान्य नियमों की जानकारी होना भी आवश्यक है। उन्हीं के आधार पर ग्रहों के बलाबल का निर्णय लेकर सटीक कथन (फलादेश) किया जा सकता है। 👉🏻👉🏻👉🏻👉🏻👉🏻👉🏻👉🏻👉🏻👉🏻👉🏻👉🏻👉🏻👉🏻👉🏻किस व्यक्ति का भाग्योदय कब, कहाँ और कैसे होगा यह कोई नहीं जानता। एक मामूली व्यक्ति भी निम्न स्थान से उठकर उच्च स्थान पर पहुंच जाता है। इन का कारण उसके मजबूत ग्रह है। कभी-कभी किसी को थोड़े समय के लिए लाभ एवं प्रगति होती है। कुछ लम्बे समय तक सुख भोगते हैं। इसे हम विवेचन द्वारा समझ सकते हैं।जातक की कुंडली में उसके जन्म लग्न तथा चन्द्र लग्न में एक या दो ग्रह अवश्य कारक होता है। कारक का अर्थ केवल शुभ ग्रह ही नहीं, बल्कि क्रूर ग्रह भी हो सकते हैं। जैसे कर्क लग्न में मंगल एवं बृषभ लग्न में शनि जैसे ग्रहों को भी हम कारक कह सकते हैं, क्योंकि यह जहाँ भी बैठेगे वहीं शुभ फल प्रदान करेंगे। इसकी दशा भी अच्छी जाती है। अतः कुंडली में कारक ग्रह की शुभ स्थिति जातक को अपनी दश में अक्सर उपर उठा देती है। चाहें वह ग्रह नीचे के ही क्यों न हो। हाँ, अपवाद में ऐसे वक्री ग्रह कभी-कभी प्रगति में व्यवधान देते हैं।यदि कुंडली में किसी कारक ग्रहों की स्थिति शुभ हो तो गोचर वश अपने भ्रमण के दौरान यह ग्रह जिन-जिन राशियों से गुजरेगा, वहाँ-वहाँ शुभ फल प्रदान करेगा। जैसे कर्क लग्न में मंगल और कुंभ लग्न में शुक्र ग्रह कारक है। यह ग्रह गोचर में भ्रमण के दौरान कुंडली में जिन-जिन राशियों से गुजरेगा, वहीं लाभ एवं प्रगति देता जायेगा। यदि यह ग्रह स्वग्रही या उच्च के या किसी शुभ स्थान में बैठे हो तो अवश्य गोचर भ्रमण के दौरान उस भाव संबंधी फल में लाभ देता रहेगा। चन्द्र, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल जैसे ग्रह अधिक समय तक किसी राशि में नहीं बैठते, अतः वह भाव संबंधी विशेष फल कुछ समय के लिए ही प्राप्त होता है।यहाँ एक बात बहुत महत्वपूर्ण है। कुंडली के कारक ग्रह गोचर वश जब-जब शुभ भाव से गुजरेगे तो शुभ फल प्रदान करते हैं। इसी प्रकार अशुभ भाव (3.6.8.12) से जब भी भ्रमण के दौरान पारित होगे तो उस भाव संबंधी फल में असर करेगे। यदि कारक की स्थिति शुभ न हो, वक्री हों या अकारक दशा चल रही हो तो तृतिये में परेशानी, षष्ठ भाव में शत्रु तथा रोग भय, द्वादश में खर्च एं झंझट होती है। कई बार कुंडली का कारक ग्रह बहुत अधिक या कम अंश का हो तो भी कई बार निष्फल हो जाता है।कुंडली में अकारक ग्रह की दशा अच्छी नहीं जाती। गोचर भ्रमण के दौरान यह शुभ भावों से गुजरते वख्त अशुभ तथा परेशानी वाला फल देता है। परन्तु यही ग्रह गोचर भ्रमण में यदि त्रिक स्थानों (3,6, 8, 12) से गुजरे तो बूरा फल नहीं मिलता इस विषय में अनुसंधान एवं अनुभव की आवश्यकता है।अब भाग्योदय का एक और पहलू को देखे दशम भी कर्म भाव है। इस भाव में यदि कोई ग्रह उच्च का स्वग्रही या शुभ अवस्था में कोई ग्रह बैठा हो तो उसकी दशा अच्छी जाती है। दशमेश यदि उच्च का होकर एकादश लग्न या द्वितीय भाव में बैठे तो भी दशा अच्छी जाती है। दशम भाव चूंकि कर्म संबंधी भाव है। अतः इसकी दशा में व्यक्ति कार्य करके प्रगति करता है। परन्तु इसके लिए दशम या दशमेश पाप प्रभाव में न हो, यह देखना चाहिए ।सप्तम स्थान पत्नी भवन है। इसके साथ-साथ यह एक गुप्त स्थान भी है। एक अदृष्य और रहस्यमय शक्ति को अन्दर में छुपाया हुआ स्थान है। सप्तम भाव का संबंध जब दशम भाव से किसी भी प्रकार से हो तो राजयोग प्रदान करता है। यह संबंध युति प्रतियुति या दृष्टि संबंधी कहं भी किसी भी भाव में हो सकता है। ठीक इसी तरह सप्तम भाव का संबंध यदि लग्न से किसी भी प्रकार से हो तो भी उसकी दशा अन्तर्दशा में राजयोग प्राप्त होता है।उदाहरण स्वरूप हम इंन्दिरा गांधी की कुंडली की कुंडली को ले सकते हैं। इनका कर्क लग्न है। लग्नेश चन्द्रमा सप्तम भाव में बैठा है और सप्तम भाव का स्वामी शनि लग्न में बैठा है। इस तरह दोनों ग्रह (चन्द्र और शनि) एक दूसरे के घर में बैठ कर एक दूसरे को देख भी रहे है। शनि की महादशा भी इनकी कुछ वर्षों से चल रही है। अतः यह राजयोग प्रदान करती है। ऐसे अनेको उदाहरण सप्तम और लग्न से सम्बन्धित मिल सकते है। सप्तम तथा दशम का सम्बंध भी राजयोग वाली कुण्डलियों में मिलेगें ।परन्तु सप्तम स्थान का सम्बन्ध यदि चतुर्थ से हो। यह सम्बन्ध युति प्रति युति या दृष्टि सम्बन्ध भी हो सकता है। तब वह अच्छा नहीं। बूरा फल प्राप्त होता है। विशेष कर उसकी दशा में व्यक्ति को बदनामी तथा अपयश मिलता है। बदनामी का कारण कोई भी स्त्री पक्ष हो सकता है। इसी प्रकार सप्तम का सम्बन्ध द्वादश भाव के साथ भी ठीक नहीं।अब हम ग्रहों से सम्बन्धित भाग्योदय वर्ष पर ध्यान दे। हर ग्रह की अपनी विशेषता होती है। प्रत्येक कुण्डली में कोई एक यह आवश्य कारक या आलकारक होता है। उसी प्रकार कोई एक ग्रह आलकारक हो, भाग्येश हो, लग्नेश हो या कर्मेश हो उसी ग्रह के अनुरूप वह कार्य करता है। जैसे सूर्य ग्रह 22 वर्ष की उम्र में भाग्योदय देता है। उसी प्रकार अन्य ग्रहों में चन्द्रमा 24 वर्ष की उम्र में शुक्र 25 वर्ष, शुरू 18 वर्ष, बुध 32, मंगल 28, शनि 36 वर्ष, राहु 42 वर्ष तथा केतु 48 वर्ष में भाग्योदय देता है। भाग्योदय वर्ष से सम्बंधित ग्रह की यदि दशा भी चल रही हो तो शुभ फल प्राप्त होता है। परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि सम्बंधित ग्रह किसी पाप ग्रह से पीड़ित न हो तथा शुभ स्थान में बैठा हो ।जैसे चन्द्रमा किसी शुभ कारक या उच्च ग्रह के साथ या अकेले ही दशम भाव में बैठा हो तो उस व्यक्ति को 24 वर्ष की उम्र में कोई कर्म (चन्द्रमा से सम्बंधित) लाभ होता है। ऐसे में यदि चन्द्रमा की महादशा भी चल रही हो तो बहुत शुभ फल मिलता है परन्तु यहाँ दो शर्त भी है। प्रथम तो चन्द्रमा किसी पाप ग्रह से पीड़ित न हो। दूसरा चन्द्रमा उस लग्न कुंडली में अकारक ग्रह न हो। इसकी दशम भाव में स्थिति भी अपने घर से तृतिये, षष्ठ, अष्ठम तथा द्वादश की न हो। तब ही यह शुभ फल देगा।इसी प्रकार यदि नवम भाव में राहु हो तो 42 वर्ष की उम्र में भाग्योदय होगा अर्थात उस समय कुछ विशेष आर्थिक लाभ होता है। एक कुंडली (बृश्चिक लग्न) में नवम स्थान में शुरू उच्च का होकर बैठा है। नवम भाव का स्वामी मंगल लग्न में बैठा है। इस जातक को 19 वर्ष की उम्र से शुरू की महादशा शुरू हुई। गुरू वक्री है। गुरु 18 वर्ष में भाग्योदय देता है। अतः वह व्यक्ति अधिक पढ़ा लिखा न होते हुए भी 18 वर्ष की उम्र से कमाने लगा। इसका शुरू चूंकि वक्री है अतः 19 वर्ष में जब शुरू की दशा शुरू हुई तो उस धंधे में भी इसने बहुत रूपये कमाये। उस समय गोचर में शुरू की स्थिति भी शुभ थी। यदि इस जातक का शुरू वक्री न होता तो यह गलत ढंग से आर्थिक प्रगति न करता बल्कि अच्छे ढंग आगे बढ़ते ।बाल वनिता महिला आश्रम -----*****----
कुंडली द्वारा फलित कथन करते समय कुछ सामान्य नियमों की जानकारी होना भी आवश्यक है। उन्हीं के आधार पर ग्रहों के बलाबल का निर्णय लेकर सटीक कथन (फलादेश) किया जा सकता है।
By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब
- जो ग्रह शत्रु क्षेत्री, पापी अथवा अस्त हो, वे अशुभ फल प्रदान करते हैं। यदि पापी ग्रह स्वराशि के हों, उच्च हों या योगकारक ग्रह से संबंध करते हों, तो अशुभ नहीं होते।
- जो भाव न तो किसी ग्रह द्वारा देखा जा रहा हो, न ही उसमें कोई ग्रह बैठा हो तो उस भाव का फल मध्यम मिलता है।
- शुभ भावों के स्वामी ग्रह यदि मित्र क्षेत्री स्वग्रही, मूल त्रिकोणी या उच्च के हों तो भावों की वृद्धि करते हैं ।
- जो भाव अपने स्वामी से युक्त अथवा दृष्ट होता है, उसकी वृद्धि होती है।
- जो भाव किसी पापी ग्रह से युक्त या दृष्ट हो (6, 8, 12 को छोड़) उसकी हानि होती है।
- कोई ग्रह कुंडली में उच्च का हो, मगर नवांश में नीच या पापी हो, तो वह लग्नेश होने पर भी शुभ फल नहीं देता ।
- केंद्र व त्रिकोण के स्वामी शुभ होते हैं। इनका परस्परसंबंध योगकारक होता है। इनके संपर्क में आया अन्य ग्रह भी शुभफल प्रदान करता है।
- यदि भावेश लग्न से केंद्र, त्रिकोण या लाभ में हो तो शुभ होता है।
- यदि दुष्ट स्थान (6, 8, 12) का अधिपति ग्रह दूसरे दुष्ट स्थान में हो, तो शुभ फल देता है ।
कुंडली द्वारा फलित कथन करते समय कुछ सामान्य नियमों की जानकारी होना भी आवश्यक है। उन्हीं के आधार पर ग्रहों के बलाबल का निर्णय लेकर सटीक कथन (फलादेश) किया जा सकता है।
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किस व्यक्ति का भाग्योदय कब, कहाँ और कैसे होगा यह कोई नहीं जानता। एक मामूली व्यक्ति भी निम्न स्थान से उठकर उच्च स्थान पर पहुंच जाता है। इन का कारण उसके मजबूत ग्रह है। कभी-कभी किसी को थोड़े समय के लिए लाभ एवं प्रगति होती है। कुछ लम्बे समय तक सुख भोगते हैं। इसे हम विवेचन द्वारा समझ सकते हैं।
जातक की कुंडली में उसके जन्म लग्न तथा चन्द्र लग्न में एक या दो ग्रह अवश्य कारक होता है। कारक का अर्थ केवल शुभ ग्रह ही नहीं, बल्कि क्रूर ग्रह भी हो सकते हैं। जैसे कर्क लग्न में मंगल एवं बृषभ लग्न में शनि जैसे ग्रहों को भी हम कारक कह सकते हैं, क्योंकि यह जहाँ भी बैठेगे वहीं शुभ फल प्रदान करेंगे। इसकी दशा भी अच्छी जाती है। अतः कुंडली में कारक ग्रह की शुभ स्थिति जातक को अपनी दश में अक्सर उपर उठा देती है। चाहें वह ग्रह नीचे के ही क्यों न हो। हाँ, अपवाद में ऐसे वक्री ग्रह कभी-कभी प्रगति में व्यवधान देते हैं।
यदि कुंडली में किसी कारक ग्रहों की स्थिति शुभ हो तो गोचर वश अपने भ्रमण के दौरान यह ग्रह जिन-जिन राशियों से गुजरेगा, वहाँ-वहाँ शुभ फल प्रदान करेगा। जैसे कर्क लग्न में मंगल और कुंभ लग्न में शुक्र ग्रह कारक है। यह ग्रह गोचर में भ्रमण के दौरान कुंडली में जिन-जिन राशियों से गुजरेगा, वहीं लाभ एवं प्रगति देता जायेगा। यदि यह ग्रह स्वग्रही या उच्च के या किसी शुभ स्थान में बैठे हो तो अवश्य गोचर भ्रमण के दौरान उस भाव संबंधी फल में लाभ देता रहेगा। चन्द्र, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल जैसे ग्रह अधिक समय तक किसी राशि में नहीं बैठते, अतः वह भाव संबंधी विशेष फल कुछ समय के लिए ही प्राप्त होता है।
यहाँ एक बात बहुत महत्वपूर्ण है। कुंडली के कारक ग्रह गोचर वश जब-जब शुभ भाव से गुजरेगे तो शुभ फल प्रदान करते हैं। इसी प्रकार अशुभ भाव (3.6.8.12) से जब भी भ्रमण के दौरान पारित होगे तो उस भाव संबंधी फल में असर करेगे। यदि कारक की स्थिति शुभ न हो, वक्री हों या अकारक दशा चल रही हो तो तृतिये में परेशानी, षष्ठ भाव में शत्रु तथा रोग भय, द्वादश में खर्च एं झंझट होती है। कई बार कुंडली का कारक ग्रह बहुत अधिक या कम अंश का हो तो भी कई बार निष्फल हो जाता है।
कुंडली में अकारक ग्रह की दशा अच्छी नहीं जाती। गोचर भ्रमण के दौरान यह शुभ भावों से गुजरते वख्त अशुभ तथा परेशानी वाला फल देता है। परन्तु यही ग्रह गोचर भ्रमण में यदि त्रिक स्थानों (3,6, 8, 12) से गुजरे तो बूरा फल नहीं मिलता इस विषय में अनुसंधान एवं अनुभव की आवश्यकता है।
अब भाग्योदय का एक और पहलू को देखे दशम भी कर्म भाव है। इस भाव में यदि कोई ग्रह उच्च का स्वग्रही या शुभ अवस्था में कोई ग्रह बैठा हो तो उसकी दशा अच्छी जाती है। दशमेश यदि उच्च का होकर एकादश लग्न या द्वितीय भाव में बैठे तो भी दशा अच्छी जाती है। दशम भाव चूंकि कर्म संबंधी भाव है। अतः इसकी दशा में व्यक्ति कार्य करके प्रगति करता है। परन्तु इसके लिए दशम या दशमेश पाप प्रभाव में न हो, यह देखना चाहिए ।
सप्तम स्थान पत्नी भवन है। इसके साथ-साथ यह एक गुप्त स्थान भी है। एक अदृष्य और रहस्यमय शक्ति को अन्दर में छुपाया हुआ स्थान है। सप्तम भाव का संबंध जब दशम भाव से किसी भी प्रकार से हो तो राजयोग प्रदान करता है। यह संबंध युति प्रतियुति या दृष्टि संबंधी कहं भी किसी भी भाव में हो सकता है। ठीक इसी तरह सप्तम भाव का संबंध यदि लग्न से किसी भी प्रकार से हो तो भी उसकी दशा अन्तर्दशा में राजयोग प्राप्त होता है।
उदाहरण स्वरूप हम इंन्दिरा गांधी की कुंडली की कुंडली को ले सकते हैं। इनका कर्क लग्न है। लग्नेश चन्द्रमा सप्तम भाव में बैठा है और सप्तम भाव का स्वामी शनि लग्न में बैठा है। इस तरह दोनों ग्रह (चन्द्र और शनि) एक दूसरे के घर में बैठ कर एक दूसरे को देख भी रहे है। शनि की महादशा भी इनकी कुछ वर्षों से चल रही है। अतः यह राजयोग प्रदान करती है। ऐसे अनेको उदाहरण सप्तम और लग्न से सम्बन्धित मिल सकते है। सप्तम तथा दशम का सम्बंध भी राजयोग वाली कुण्डलियों में मिलेगें ।
परन्तु सप्तम स्थान का सम्बन्ध यदि चतुर्थ से हो। यह सम्बन्ध युति प्रति युति या दृष्टि सम्बन्ध भी हो सकता है। तब वह अच्छा नहीं। बूरा फल प्राप्त होता है। विशेष कर उसकी दशा में व्यक्ति को बदनामी तथा अपयश मिलता है। बदनामी का कारण कोई भी स्त्री पक्ष हो सकता है। इसी प्रकार सप्तम का सम्बन्ध द्वादश भाव के साथ भी ठीक नहीं।
अब हम ग्रहों से सम्बन्धित भाग्योदय वर्ष पर ध्यान दे। हर ग्रह की अपनी विशेषता होती है। प्रत्येक कुण्डली में कोई एक यह आवश्य कारक या आलकारक होता है। उसी प्रकार कोई एक ग्रह आलकारक हो, भाग्येश हो, लग्नेश हो या कर्मेश हो उसी ग्रह के अनुरूप वह कार्य करता है। जैसे सूर्य ग्रह 22 वर्ष की उम्र में भाग्योदय देता है। उसी प्रकार अन्य ग्रहों में चन्द्रमा 24 वर्ष की उम्र में शुक्र 25 वर्ष, शुरू 18 वर्ष, बुध 32, मंगल 28, शनि 36 वर्ष, राहु 42 वर्ष तथा केतु 48 वर्ष में भाग्योदय देता है। भाग्योदय वर्ष से सम्बंधित ग्रह की यदि दशा भी चल रही हो तो शुभ फल प्राप्त होता है। परन्तु इसके लिए यह आवश्यक है कि सम्बंधित ग्रह किसी पाप ग्रह से पीड़ित न हो तथा शुभ स्थान में बैठा हो ।
जैसे चन्द्रमा किसी शुभ कारक या उच्च ग्रह के साथ या अकेले ही दशम भाव में बैठा हो तो उस व्यक्ति को 24 वर्ष की उम्र में कोई कर्म (चन्द्रमा से सम्बंधित) लाभ होता है। ऐसे में यदि चन्द्रमा की महादशा भी चल रही हो तो बहुत शुभ फल मिलता है परन्तु यहाँ दो शर्त भी है। प्रथम तो चन्द्रमा किसी पाप ग्रह से पीड़ित न हो। दूसरा चन्द्रमा उस लग्न कुंडली में अकारक ग्रह न हो। इसकी दशम भाव में स्थिति भी अपने घर से तृतिये, षष्ठ, अष्ठम तथा द्वादश की न हो। तब ही यह शुभ फल देगा।
इसी प्रकार यदि नवम भाव में राहु हो तो 42 वर्ष की उम्र में भाग्योदय होगा अर्थात उस समय कुछ विशेष आर्थिक लाभ होता है। एक कुंडली (बृश्चिक लग्न) में नवम स्थान में शुरू उच्च का होकर बैठा है। नवम भाव का स्वामी मंगल लग्न में बैठा है। इस जातक को 19 वर्ष की उम्र से शुरू की महादशा शुरू हुई। गुरू वक्री है। गुरु 18 वर्ष में भाग्योदय देता है। अतः वह व्यक्ति अधिक पढ़ा लिखा न होते हुए भी 18 वर्ष की उम्र से कमाने लगा। इसका शुरू चूंकि वक्री है अतः 19 वर्ष में जब शुरू की दशा शुरू हुई तो उस धंधे में भी इसने बहुत रूपये कमाये। उस समय गोचर में शुरू की स्थिति भी शुभ थी। यदि इस जातक का शुरू वक्री न होता तो यह गलत ढंग से आर्थिक प्रगति न करता बल्कि अच्छे ढंग आगे बढ़ते ।
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